Saturday, 16 July 2016

क्या बुढ़ापा दुख दायक है?

बूढ़ा कौन है? इस प्रश्न के उत्तर में साधारणतः यह कहा जा सकता कि जिसकी आयु ढल गई है, बाल सफेद पड़ गये हैं वह बूढ़ा है। इस प्रकार जवान कौन है? इस प्रश्न के उत्तर में भी यह कहा जा सकता है कि जिसकी नई उम्र है वह जवान है।
बूढ़े और जवान की यह व्याख्या बहुत अधूरी है। क्योंकि हम देखते हैं कि बहुत से नवयुवक बूढ़े हैं और बहुत से बूढ़ों में जवानी भरी हुई है। स्वास्थ्य की दृष्टि से देखिए- जिनकी तन्दुरुस्ती गिर गई है, बीमारी का घुन लग गया है वे जवान होते हुए भी अस्सी वर्ष के बूढ़ों की सी दुर्दशा ग्रसित हैं। इसके विपरीत बहुत से ऐसे बूढ़े मौजूद हैं जिनकी उम्र यद्यपि काफी हो चुकी है तो भी शरीर जवान का सा बना हुआ है, इन्द्रियाँ ठीक काम करती हैं, परिश्रम करने का चाव रहता है और उत्साह एवं स्फूर्ति की तरंगें उनके मन में उठती रहती हैं। देखा जाय तो यह निरोग और उत्साही बूढ़े वास्तव में जवान हैं और घुन लगे हुए आलसी नवयुवक वास्तव में बूढ़े हैं।
अब बौद्धिक दृष्टि से देखिए-कम उम्र होने पर भी जिनकी क्रिया, बुद्धि, प्रतिभा, विचारशक्ति एवं अनुभवशीलता अधिक है वे ज्ञान वृद्ध हैं, किन्तु जो आयु के हिसाब से तो पक गये हैं पर अध्ययन, विवेक एवं अनुभव छोटा है वे बूढ़े बालक समझे जायेंगे। संसार में न तो ज्ञानवृद्धों की कमी है और न बूढ़े बालकों की।
अध्यात्मिक दृष्टि से वे वृद्ध हैं जिनने अपने ऊपर काबू कर लिया है, अपने विचार और कार्यों को एक सा बना लिया है, जिनकी श्रद्धा अडिग और विश्वास अटूट है। भले ही वे आयु में छोटे हैं। उसी प्रकार आध्यात्मिक बालक वे हैं जिनका मन वासनाओं की तरंगों में डूबता उतराता फिरता है, थोड़े से प्रलोभन के आगे जो स्खलित हो जाते हैं, भले ही उनके बाल सफेद हो गये हों भले ही साधु या पंडित का चोला पहने हों।
जिसके पास ऊँचा पद हो वह पदवृद्ध है। जिसके हाथ में सत्ता है, जिसके पास धन है, जिसमें बल, बुद्धि, विद्या, प्रतिभा है, जिसकी पीठ पर जन बल है वह भी अपने-अपने क्षेत्र में वृद्ध है। इन वस्तुओं से जो रहित हैं वे उस क्षेत्र के बालक हैं। वृद्धों के आगे बालकों को हाथ बाँधे खड़ा रहना पड़ता है। अपना दर्जा नीचा अनुभव करना पड़ता है। आदर और महत्व भी उन्हें उसी अनुपात से मिलता है।
वैयक्तिक दृष्टि से बूढ़ा वह है जिसका उत्साह ठंडा पड़ गया है, जिसकी सीखने और बढ़ने की प्रवृत्ति नष्ट हो गई है। कोई नई बात सीखने या नया कदम उठाने का अवसर आता है तो ऐसे लोग कहा करते हैं इतनी उम्र बीत गई, अब क्या सीखेंगे? अब थोड़ी उम्र और रही है यह भी कट जायगी। दूसरी ओर वे मनुष्य हैं जो मृत्यु शय्या पर पहुँचने तक अपनी योग्यता और क्रियाशक्ति को बढ़ाते रहते हैं। अभी इसी साल बंगाल की एक 11 पोतों की दादी ने बी. ए. की परीक्षा दी और प्रान्त भर के छात्रों में सर्वप्रथम उत्तीर्ण हुई। इटली के सुप्रसिद्ध विद्वान मेटेन्डस ने 65 वर्ष की आयु में रशियन भाषा पढ़ना आरम्भ किया और तीन वर्ष में वह उस भाषा का अच्छा जानकार हो गया। दार्शनिक जनेहोवा 93 वर्ष के हो गये तब उन्होंने खगोल विद्या का पढ़ना आरम्भ किया। जब एक वर्ष बाद उनकी मृत्यु की घड़ी आ पहुँची तो उन्होंने कहा-काश, मैं 13 महीने और जीवित रहा होता तो खगोल विद्या में ग्रेजुएट हो जाता।
बूढ़ा होना आजकल असमर्थ होने के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। जो अपनी शक्ति सामर्थ्य क्रिया-शीलता, चेतना, जागरुकता, आशा एवं स्फूर्ति खो बैठा है वह बूढ़ा समझा जाता है। बूढ़ों के लिए मृत्यु ही एक मात्र आश्रय है। घर वाले उसकी मृत्यु की आकाँक्षा करते हैं, मर जाने पर खुशी मनाते हैं, मृत्यु समय में घंटा घड़ियाल, गाजे-बाजे बजते हुए देखकर और मृत्यु भोज के उपलक्ष में हलुआ पूड़ी उड़ाने की धूम देख कर यह आसानी से अनुभव किया जा सकता है कि उस बूढ़े के मर जाने पर घर वालों को खुशी हुई है। जिस स्थिति में दुखी होना स्पष्ट सिद्धाँत है। यदि बूढ़े की मृत्यु पर इस प्रकार की खुशी मनाई जाती है तो उसका स्पष्ट अर्थ है कि उसके जीवित रहने से उन्हें दुख होता होगा।
विचारणीय प्रश्न यह है कि बूढ़े में ऐसी क्या बात हो जाती है कि उसकी मृत्यु की आकाँक्षा की जाती है और कभी-कभी तो वह बूढ़ा स्वयं भी वैसी ही इच्छा करता है। बात यह है कि शक्तियों की वृद्धि एवं स्थिरता की ओर यदि ध्यान न दिया जाय तो वे घटने लगती हैं। अशक्त मनुष्य निःस्वत्व हो जाता है, छूँछ रह जाता है, ऐसी वस्तु को फेंक देने या नष्ट हो जाने के अतिरिक्त और उसका क्या उपयोग हो सकता है। यही कारण है कि बूढ़ामनुष्य आज एक उपेक्षणीय अनुपयोगी एवं छूँछ तत्व समझा जाता है और उसका सम्मान नहीं रहता।
परन्तु वास्तव में बूढ़ा होना ऐसी स्थिति नहीं है जैसी कि आजकल बन गई है। वृद्धि-बढ़ोतरी को कहते हैं। वृद्ध का अर्थ है, बढ़ा हुआ, समुन्नत अधिक समृद्ध एवं सशक्त। ज्ञानवृद्ध, पदवृद्ध, धनवृद्ध आदि शब्दों द्वारा छोटी आयु के मनुष्यों को बूढ़े मनुष्य की समता दी जाती है। इसमें यही सभ्यता काम कर रही है कि बूढ़ाअधिक शक्ति सम्पन्न होता है। जो त्रुटि कम उम्र में रहती है वह वृद्धावस्था में पूरी हो जाती है किन्तु जो लोग ज्ञान आदि की उतनी उन्नति कर लेते हैं जितनी कि वृद्धावस्था तक पहुँच जाने पर ही संभव है, तो उन्हें ज्ञानवृद्ध आदि की पदवी दी जाती है।
विचारपूर्वक देखने से पता चलता है कि बूढ़ा होना तत्वतः तक सम्माननीय स्थिति है, पर आज वह उपेक्षा तिरस्कार एवं अपमानजनक असहायावस्था बन गई है। इस अवाँछनीय हेर-फेर का कारण वह निराशा- पूर्ण मनोभावना है। जिसमें जरा सी उम्र ढलते ही मनुष्य ग्रसित हो जाता है, समझने लगते हैं कि शरीर शिथिल हुआ, मृत्यु निकट आई, अब हमें क्या करना है, अब हमसे क्या हो सकेगा। उनके हाथ पैर फूल जाते हैं और निराशा के कारण अपनी संचित योग्यताओं को भी खोकर छूँछ बन जाते हैं।
पका फल अधिक मीठा हो जाता है, बीज का दाना तभी पूर्ण गुण युक्त होता है जब वह पक जाता है। मनुष्य भी अपने आधे जीवन में जब अनुभव संग्रह कर लेता है तब तीसरे पन में पकने लगता है और पूर्णता प्राप्त करने लगता है। उस समय उसका ज्ञान और अनुभव अपेक्षाकृत अधिक परिपुष्ट और महत्वपूर्ण होता है। उस परिपुष्टि के सहारे वह अपने जीवन को अधिक समुन्नत बना सकता है, दूसरों को अच्छा पथ-प्रदर्शन कर सकता है। वृद्धावस्था योग्यता की वृद्धि की अवस्था है, सफेद बालों को लोग अपने दीर्घकालीन अनुभव के प्रमाणपत्र स्वरूप पेश करते हैं। कहते हैं-यह बाल धूप में सफेद नहीं किये हैं। इनका भावार्थ यह है कि इस सफेद बाल वाले बूढ़े के पास दीर्घ कालीन और ज्ञान मौजूद है।
वृद्धावस्था में शरीर की श्रम शक्ति का कम हो जाना स्वाभाविक है। पर इसी कारण निराश होने का कोई कारण नहीं। बालकों को शारीरिक श्रम करने की योग्यता कम होती है पर इसी कारण उनकी न तो उपेक्षा की जाती है और न मृत्यु की कामना। शारीरिक श्रम शक्ति का कम हो जाना कोई बहुत बड़ी क्षति नहीं है। मनुष्य का मूल्य शारीरिक बल से नहीं आँका जाता, उसका महत्व जिन बातों पर निर्भर है वे वृद्धावस्था में कम नहीं होती वरन् बढ़ती है। इससे स्पष्ट है कि वृद्ध पुरुषों की उपयोगिता बढ़नी चाहिए, स्थिर रहनी चाहिए।
इस पर भी हम देखते हैं कि आज बूढ़ाहोना एक अभिशाप के समान है। कारण यही है कि लोग अपनी योग्यताओं, शक्तियों को बढ़ाने और स्थिर रखने की आशा, प्रेरणा और क्रिया को छोड़ देते हैं। शेष जीवन को निराशा और उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं दूसरे भी उसको उसी दृष्टि से देखने लगते हैं। फलस्वरूप बूढ़ा होना गिरी दशा का सूचक बन जाता है। चढ़ती उम्र के और ढलती उम्र के, दोनों ही प्रकार के ऐसे बूढ़ों से हमारा समाज भरा हुआ है जो अंधकार-पूर्ण भविष्य के गहरे गर्भ की ओर तेजी से कदम बढ़ाते हुए चले जा रहे हैं।

इन चढ़ती और ढलती उम्र के निराशावादी बूढ़ों के कारण बेचारी वृद्धावस्था बदनाम होती जा रही है। अब समय आ गया है कि पूज्यनीय वृद्धावस्था को इस दुर्दशा से बचाया जाय। वृद्ध कहे जाने वाले पुरुष, अपने बुढ़ापे में अपने उत्साह को मन्द न होने दें, अपनी आशाओं को स्थिर रखें। अपनी क्रियाशक्ति को सचेत बनाये रहें। शरीर और मस्तिष्क से सामर्थ्य के अनुसार बराबर काम लें। शेष जीवन की एक-एक घड़ी से अधिकाधिक लाभ उठाने की इच्छा रखें। जो ज्ञान और अनुभव संचित कर लिया जायगा वह अगले जन्म में काम देगा ऐसा सोच कर मृत्यु की घड़ी तक ज्ञान सम्पादन करने, योग्यता बढ़ाने, अनुभव प्राप्त करने, भूलों का सुधार करने एवं अपने अनुभव से दूसरों को लाभ पहुँचाने का प्रयत्न निरन्तर जारी रखना चाहिए। यदि ऐसा प्रयत्न वृद्ध लोग करते रहें तो बूढ़ा होना दुख की बात न रह कर गौरव की बात होगी।

बुजुर्गों को ठुकराता आधुनिक समाज

सुनील
खबर है कि जापान के वैज्ञानिक एक ऐसे रोबोट के विकास में लगे है, जो बूढ़े  लोगो की उसी तरह मदद व सेवा करेगा जैसे एक इंसान करता है। वहाँ की बढ़ती हुई आबादी के लिए इसे वरदान बताया जा रहा है। विज्ञान और तकनालाजी के आधुनिक चमत्कारों की श्रृंखला में यह एक और कड़ी जुड़ने वाली है। क्या सचमुच यह वरदान है? क्या फिर आधुनिक जीवन और आधुनिक सभ्यता की एक और विडंबना? क्या इससे जापान के बूढ़े लोगों की समस्याएं हल हो सकेगी? वृद्धावस्था में अपने नजदीकी परिजनों द्वारा देखभाल, स्नेह व सामीप्य की जो जरुरत होती है, क्या वह पूरी हो सकेगी? क्या उनका अकेलापन व बैगानापन दूर हो सकेगा? क्या एक मशीन इंसान की जगह ले सकेगी ? इन सवालों को लेकर एक बहस छिड़ गई है ? जापान और तमाम संपन्न देशों में यह सचमुच एक संकट है। नए जमाने में दंपत्तियों द्वारा कम बच्चे पैदा करने और जन्म दर कम होने से वहाँ की आबादी में बुजुर्गों का अनुपात बढ़ता जा रहा है, लेकिन उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। बढ़ी तादाद में ये बुजुर्ग अब अकेले रहने को मजबूर हैं या फिर उन्हें वृद्धाश्रमों में भेज दिया जाता है। वहां नर्सें व अन्य वैतनिक कर्मचारी उनकी देखभाल करते है। उनके परिजन बीच-बीच में फोन कर लेते हैं। और कभी कभी जन्मदिन या त्योहारों पर गुलदस्ता  लेकर उनसे मिलने चले आते हैं। इन बूढ़ों की जिदंगी घोर एकाकीपन, खालीपन व बोरियत से भरी रहती है। उनके दिन काटे नहीं कटते। इधर मंदी व आर्थिक संकट के कारण ये वृद्धाश्रम भी कई लोगों की पहुंच से बाहर हो रहेहैं। इन देशों में श्रम महंगा होने के कारण निजी नौकर रखना भी आसान नहीं है। इसलिए रोबोट जैसे समाधान खोजे जा रहे हैं, हालांकि यह रोबोट भी काफी महंगा होगा और वहां के साधारण लोगों की हैसियत से बाहर होगा। नार्वे-स्वीडन में पिछले कुछ समय से बुजुर्गों को स्पेन के वृद्धाश्रमों में भेजने की प्रवृति शुरु हुई है, क्योंकि वहां श्रम अपेक्षाकृत सस्ता होने के कारण कम खर्च आता है। याने एक तरह से वृद्धों की देखभाल की भी आउटसोर्सिंग का तरीका पूंजीवादी वैश्वीकरण ने निकाल लिया है।
कुछ साल पहले फ्रांस में एकाएक ज्यादा गर्मी पड़ी, तो वहां के कई बूढ़े लोग अपने फ्लेटों में मृत पाए गए। उनके पास कोई नहीं था, जो उनको सम्भालता या अस्पताल लेकर जाता । कुल मिलाकर , आधुनिक समाज में बूढ़े एक बोझ व बुढ़ापा एक अभिशाप बनता जा रहा है। आधुनिक जीवन का यह संकट अमीर देशों तक सीमित नहीं है। यह भारत जैसे देशों में भी तेजी से प्रकट हो रहा है। संयुक्त परिवार टूटने, बच्चों की संख्या कम होने तथा नौकरियों के लिए दूर चले जाने से यहां भी बूढ़े लोग तेजी से  अकेले  व बेसहारा होते जा रहे है। खास तौर पर मध्यम व उच्च वर्ग में यह संकट ज्यादा गंभीर है। बच्चे तो  उच्च शिक्षा प्राप्त  करके नौकरियों  में दूर महानगरों में या विदेश में चले जाते है, जिनकी सफलता की फख्र से चर्चा भी मां/बाप करते हैं। किंतु बच्चों की यह सफलता उनके बुढ़ापे की विफलता बन जाती है। बहुधा जिस बेटे को बचपन में फिसड्डी, कमजोर या नालायक माना गया था, वही खेती या छोटा-मोटा धंधा करता हुआ  बुुढ़ापे का सहारा बनता है। पहले नौकरीपेशा लोगों के लिए पेंशन व भविष्य निधि से कम से कम बुढ़ापे में आर्थिक सुरक्षा रहती थी। किंतु  अब नवउदारवादी व्यवस्था में ठेके पर नौकरियों के प्रचलन से ये प्रावधान भी खत्म हो रहे है। इस बजट में आयकर की छूट के लिए आयू 65 से घटाकर 60 वर्ष करने से मध्यमवर्गीय वृद्धों कों कुछ राहत मिलेगी। किंतु 80 वर्ष के उपर के वृद्धों के लिए छूट सीमा 5 लाख रु. करना एक चालाकी है। आखिर देश मे कितने बुजुर्ग 80 से ऊपर के हांेगे जिनकी आय 5 लाख रु. तक होगी ? गरीब वृद्धों  के लिए वृद्धावस्था पेंशन की राशि नए बजट में बढ़ाकर 400 रु. प्रतिमाह की गई है, किंतु यह भी महंगाई के इस जमाने में ऊंट के मुहं में जीरे के समान है। भारत में वृद्धाश्रमों का अभी ज्यादा प्रचलन नहीं है। ऐसा नहीं है कि यह मुसीबत महज बूढ़ों की है। नगरों में रहने वाले जिन परिवारों में महिलाएं काम पर जाती हैं,  वहां छोटे बच्चों की देखरेख एक बड़ी समस्या बनती जा रही है। बार-बार आजमाए जाते नौकर-नौकरानी भी इस समस्या को पूरी तरह से हल नहीं कर पा रहे हैं। इससे समझ में आता है कि पुराने संयुक्त परिवारों में बच्चे और बूढ़े एक दूसरे के पूरक थे। बच्चों की देखरख के रुप में बुजुर्गों के पास भी काम व दायित्व होता था और बच्चों को भी उनकी छत्रछाया में देखभाल, प्यार, शिक्षा व संस्कार मिलते थे। वयस्कों को भी बच्चों की जिम्मेदारी से कुछ फुर्सत, सलाह, मार्गदर्शन व बुजुर्गों के अनुभवों का लाभ मिल जाता था। मिंया-बीबी के झगड़े भी उनकी मौजूदगी में नियंत्रित रहते थे और विस्फोटक रुप धारण नहीं करते थे। संयुक्त  परिवार में बचपन से सामंजस्य बिठाने, गम खाने, धीरज रखने व बुजुर्गों का आदर करने का प्रशिक्षण होता था। आज इसके अभाव में नई पीढ़ी में उच्छृंखलता, व्यक्तिवाद व स्वार्थीपन बढ़ रहा है। विकलांगों , विधवाओं, परित्यक्ताओं , बूढ़ों  और अविवाहितों  के लिए भी ये परिवार एक तरह की सुरक्षा प्रदान करते थे, जिसकी भरपाई वृद्धाश्रमों या सामाजिक सुरक्षा की सरकारी  योजनाओं से संभव नहीं है। यदि कोई भाई कमाता नहीं है या कमाने में कमजोर है, सन्यांसी बन गया या किसी मुहिम का पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गया, तो भी संयुक्त परिवार में उसके बच्चों का लालन-पालन हो जाता था।
संयुक्त परिवार में सब कुछ अच्छा था, ऐसा नही है। छूआछूत, परदा, बेटियों के साथ भेदभाव जैसी रुढ़ियां व प्रतिबंध उनमें हावी रहते थे और उनको तोड़ने में काफी ताकत की जरुरत होती थी। आजादख्याल लोग उनमें घुटन महसूस करते थे। सबसे ज्यादा नाइंसाफी बहुओं के साथ होती थी। सामंजस्य बिठाने का पूरा बोझ उन पर डाल दिया जाता था। सास-बहू के टकराव तो बहुचर्चित है, जो अब आधुनिक भोग संस्कृति व लालच के साथ मिलकर बहुओं को जलाने जैसी वीभत्स प्रवृतियांे का भी रुप ले रहे हैं। कुछ नारीवादी व अराजकतावादी कह सकते हैं कि संयुक्त परिवार की संस्था पितृसत्ता का गढ़ थी और वह जितनी जल्दी टूटे, उतना अच्छा है। कुल मिलाकर , संयुक्त परिवार की पुरानी व्यवस्था को आदर्श नहीं कहा जा सकता है। उसमें कई दिक्कतें थी। किंतु अफसोस की बात है कि उसकी जगह जो नई व्यवस्था बन रही है, उसमें और ज्यादा त्रासदियाँ है। हम खाई से निकलकर कुए में गिर रहे है। बीच का कोई नया रास्ता निकालने की कोशिश ही हमने नहीं की, जिसमें समतावादी-लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ सामाजिक क्रांति के जरिये संयुक्त परिवार के दोषों को दूर करते हुए भी उनकी खूबियों व सुरक्षाओं को बरकरार रखा जाता । जिसमें अपनी पूरी जिंदगी परिवार, समाज व देश को देने वाले बुजुर्गों के जीवन की संध्या को सुखी, सुकून भरा व सुरक्षित बनाया जा सकता हो। जिसमें पुराने चावलोंकी इज्जत भी होती और उनका भरपूर उपयोग भी होता। यह कहा जा सकता है कि भूमंडलीकरण के नए जमाने में गतिशीलता बढ़ने से परिवारों का बिखरना  लाजमी है। किंतु तब क्या इस पूरे आधुनिक विकास व भूमंडलीकरण पर भी पुनर्विचार करने की जरुरत नहीं है ? कई अन्य पहलूओं के साथ-साथ बूढों के नजरिये से भी क्या एक विकेन्द्रीकृत स्थानीय समाज ज्यादा बेहतर व वांछनीय नहीं होता ? अभी तक आधुनिकता की आंधी में बहते हुए इन सवालों पर हमने गौर करने की जरुरत ही नहीं समझी। किंतु यदि सामाजिक जीवन को आसन्न संकटों एवं विकृतियों से बचाना है तथा सुंदर व बेहतर बनाना है, तो इन पर मंथन करने का वक्त आ गया है।

Friday, 15 July 2016

क्या बुढ़ापा अभिशाप है…!

आजकल सीनियर सिटिजंस को मुख्यत: 3 तरह की समस्याएं झेलनी पड़ रही हैं। एक कोशिश बुढ़ापे को करीब से जानने की बुढ़ापे का एक सच यह है कि उस व्यक्ति ने जो सीखा हुआ है उसे वह भूल नहीं सकता और नई चीजें वह सीख नहीं सकता। यानी उसे पिछले सीखे हुए से ही काम चलाना पड़ता है। सीनियर सिटिजंस की मौजूदा हालत के लिए अगर कोई एक बात जिम्मेदार है, तो वह है इस देश का इतिहास। हमारे देश का जन्म ही कुछ इस तरह हुआ कि इसकी कई समस्याओं का कोई समाधान नहीं दिखता। यहां कभी मनुष्य के जीवन को महत्व नहीं दिया गया। अमेरिका और यूरोप में यही फर्क दिखा कि वहां हर व्यक्ति के जीवन की कद्र है। कद्र है इसलिए सबकुछ उसकी सुविधा के लिए बनाया गया है। वहां पैरंट्स जल्दी ही बच्चों से अलग स्वतंत्र जीवन गुजारते हैं। यहां हम लोग सीनियर सिटिजंस की पूजा करते हैं और हमेशा उन्हें अपने साथ रखते हैं, यह हमारे समाज का सकारात्मक पहलू है। वे चाहें ग्रामीण इलाकों में रहते हों या शहरी इलाकों में, सीनियर सिटिजंस के लिए सबसे बड़ी परेशानी स्वास्थ्य समस्याएं हैं। इस मुल्क में सीनियर सिटिजंस के लिए हेल्थ केयर नाम की कोई चीज ही नहीं है। बच्चों के खुद से दूर रहने को मैं कोई समस्या नहीं मानता। यह तो आज के आधुनिक समय की जरूरत बन गई है, हमें उसके हिसाब से ढलना होगा। बच्चों का विदेश जाना भी समस्या नहीं है, बशर्ते कि वे वहीं शादी करके सेटल न हो जाएं। मैं मानता हूं कि नई पीढ़ी का जीवन बहुत फास्ट हो गया है, लेकिन बावजूद इसके वे अपने पसंदीदा काम के लिए टाइम तो निकाल ही लेते हैं। इसलिए यह कहना गलत है कि वे समय की कमी के कारण सीनियर सिटिजंस की देखभाल नहीं कर पाते। दरअसल नई पीढ़ी आत्मग्रस्त होती जा रही है। बसों में वे सीनियर सिटिजंस को जगह नहीं देते। बुजुर्ग अकेलापन झेल रहे हैं क्योंकि युवा पीढ़ी उन्हें लेकर बहुत उदासीन हो रही है , मगर हमें भी अब इन्हीं सबके बीच जीने की आदत पड़ गई है। सीनियर सिटिजंस की तकलीफ की एक बड़ी वजह युवाओं का उनके प्रति कठोर बर्ताव है। लाइफ बहुत ज्यादा फास्ट हो गई है। इतनी फास्ट की सीनियर सिटिजंस के लिए उसके साथ चलना असंभव हो गया है। एक दूसरी परेशानी यह है कि युवा पीढ़ी सीनियर सिटिजंस की कुछ भी सुनने को तैयार नहीं- घर में भी और बाहर भी। दादा-दादियों को भी वे नहीं पूछते, उनकी देखभाल करना तो बहुत दूर की बात है। जिंदगी की ढलती साँझ में थकती काया और कम होती क्षमताओं के बीच हमारी बुजुर्ग पीढ़ी का सबसे बड़ा रोग असुरक्षा के अलावा अकेलेपन की भावना है। बुजुर्ग लोगों को ओल्ड एज होम में भेज देने से उनकी परिचर्या तो हो जाती है, लेकिन भावनात्मक रूप से बुजुर्ग लोगों को वह खुशी और संतोष नहीं मिल पाता, जो उन्हें अपने परिजनों के बीच में रहकर मिलता है। शहरी जीवन की आपाधापी तथा परिवारों के घटते आकार एवं बिखराव ने समाज में बुजुर्ग पीढ़ियों के लिए तमाम समस्याओं को बढ़ा दिया है। कुछ परिवारों में इन्हें बोझ के रूप में लिया जाता है। वृद्धावस्था में शरीर थकने के कारण हृदय संबंधी रोग, रक्तचाप, मधुमेह, जोड़ों के दर्द जैसी आम समस्याएँ तो होती हैं, लेकिन इससे बड़ी समस्या होती है भावनात्मक असुरक्षा की। भावनात्मक असुरक्षा के कारण ही उनमें तनाव, चिड़चिड़ाहट, उदासी, बेचैनी जैसी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। मानवीय संबंध परस्पर प्रेम और विश्वास पर आधारित होते हैं। जिंदगी की अंतिम दहलीज पर खड़ा व्यक्ति अपने जीवन के अनुभवों को अगली पीढ़ी के साथ बाँटना चाहता है, लेकिन उसकी दिक्कत यह होती है कि युवा पीढ़ी के पास उसकी बात सुनने के लिए पर्याप्त समय ही नहीं होता। मध्यम वर्ग में ज्यादातर बुजुर्गों की समस्या की शुरुआत यहीं से होती है। ध्यान जीवन का आधार है। परमात्मा ने मानव को ध्यान की संपदा देकर भेजा है, जिसे वह फलित करके अपने जीवन को महाजीवन में बदल आत्मनिर्भर हो सकता है। आत्मनिर्भरता धन से नहीं होती। जो खुद अपनी आत्मा पर निर्भर हो, वही आत्मनिर्भरता है। ऊर्जा व शक्ति का स्त्रोत भीतर है, लेकिन उसे बाहर खोजा जा रहा है। अंतस ध्यान में उतर कर ही ऊर्जा स्त्रोत प्रकट किया जा सकता है। किसी मनुष्य से आशा नहीं रखनी चाहिए और परमात्मा से आशा नहीं छोड़नी चाहिए। बुजुर्ग की हालत का रोना हर जगह है, मै तो मानता हूँ की यदि जवानी में आपने अपने बच्चों से ठीक से बर्ताब किया होता तो ये दिन देखने नहीं पड़ते, अपने औलाद को आपने धिक्कारा ,भला बुरा कहा,बहुओं को बेटी बराबर नहीं समझा तो दोष किसका है , हमेसा बहुओं को ताने देना ,मायके से कुछ लाने को कहना और उसकी आलोचना दुसरो से करना क्या गवारा नहीं लगता पूजा करते , जीवन बीता ! अब मुझको आराम चाहिए! कौन यहाँ आकर के, समझे मुझको भी, आराम चाहिए! कुछ दिल वाले दिलदार मिले कुछ मस्ती वाले यार मिले कुछ बिना कहे आते जाते घर बार लुटाते, यार मिले ! कुछ मधुशाला का रस लेने आते है, सुनने गीतों को! कुछ तो इनमें मस्ती ढूँढें कुछ यहाँ खोजते मीतों को कौन यहाँ पर तेरे जैसा हंस, नज़र में आता है! कौन यहाँ गैरों की खातिर तीर ह्रदय पर, खाता है! बिल्व पत्र और फूल धतूरा पंचामृत अर्पित शिव पर! मीनाक्षी सम्मान हेतु, खुद गज आनन्, दरवाजे पर! एक बुजुर्ग घर के बाहर बरामदे में बैठा हर वक्त बुड़बुड़ाता रहता है। बेटे-बहू से असंतुष्ट। , एक मित्र समझाते हुए कहता है कि बूढ़े लोग रुई के गट्ठर के समान होते हैं। शुरू में घर के लोगों के लिए हल्के-फुलके, पर बाद में भीगी रुई से बोझिल हो जाते हैं। रुई हल्की बनी रहे, इसके लिए अपने बच्चों की कुछ बातों को अनदेखा करो, अनसुना रहने दो। चाय के लिए रखा दूध बिल्ली पी गई -तो मान लो कि सचमुच बिल्ली पी गई होगी। मक्की की रोटी नहीं मिली, चावल-दही मिला तो भी प्रेम से जीम लो। सोचो, बहू तुम्हारे नाजुक पेट की देख-भाल कर रही है। पर वृद्ध बदलते नहीं। एक दिन वे नाराज होकर तीर्थ यात्रा पर निकल पड़ते हैं, कभी न लौटने की मंशा से। उनको विदा करते हुए घर के सभी लोगों की आंखें भीग जाती हैं। वे उनसे जल्दी ही लौट आने के लिए मिन्नतें करते हैं। परिवार वाले अचानक उनके बिना असुरक्षित महसूस करने लगते हैं। अब घर का ध्यान कौन रखेगा। इन के सहारे कहीं भी घूम आते थे। कौन कुत्ते, बिल्ली और अजनबी को हड़काएगा? बैल गाड़ी कुछ दूर निकल जाती है तो वृद्ध को भी अपने मित्र की कही बातें याद आने लगती हैं। बहू-बेटे की मजबूरियां, बच्चों की मासूम शैतानियां -सब साफ -साफ नजर आने लगता है। और फिर आधे से अधिक रास्ता तय कर के भी वे गाड़ी को घर की ओर वापस मुड़वा लेते हैं। दादा दादी , नाना नानी के संरक्षण में बच्चों में आत्मविश्वास और सुरक्षित होने की भावना बढ़ती है। जिन घरोंमें गृहणियां बाहर नहीं जातीं , वहां भी वरिष्ठ सदस्यों की प्रासंगिकता रहती है। पति पत्नी एक मर्यादा में रहते हैं।बात बात में आपे से बाहर नहीं होते। बच्चों को भी उनकी क्रोध ज्वाला से बचने की शीतल शरण स्थलीमिल जाती है। जब तककोई बहुत ही गलत रास्ते पर न जा रहा हो , तब तक रोक टोक से बचें। तभी जिंदगी की रुई की गठरी हल्कीरहेगी। किसी के कंधों पर वजन न पड़ेगा। हां इतनी भी हल्की न हो जाए कि कोई भी फूंक से उड़ा दे! सर पर जो रख दे अपना हाथ, लगता है हर वक्त हँ हमारे साथ, बनी रहे उनकी हम पर छत्रछाया, हर मुश्किल में दिल मांगे उनका साया, उनके कांपते हाथों में भी है शक्ति भरी, उनके आशीर्वाद से ही है जिंदगी हरी-भरी, उनका एक स्पर्श देता है इतनी स्फूर्ति, जैसे माँ का स्पर्श करता जन्नत की पूर्ति, जिस घर में है बुजुर्गों का सम्मान, घर के रथ की है उनके हाथों में कमान, फ़िर कैसे अधूरे रहेंगे वहां किसी के अरमान, काश आज के बच्चे खुशी का राज़ समझ पाते, तो क्यों अंधेरे में अपने वो कदम बढाते, उनको तो बस नही बस पसंद टोका-टाकी, चाहे जिंदगी रहे मुठी में बंद पानी जितनी बाकि, ये युवा पीढी तो माने इसे ही अपनी आज़ादी, नही जानते बिना बुजुर्गों के साए है उनकी बर्बादी, पर हमने भी खायी है कसम आखिरी साँस तक, बुजुर्गों को दिलाएंगे सम्मान हमारे अरमान तक. ‘अहिल्या’ अनुभवों की कुंजी हैं। इसे विषाद नहीं, प्रभु का प्रसाद बनाइए।, बचपन में ज्ञानार्जन कीजिए और जवानी में धनार्जन, पर बुढ़ापे को पुण्यार्जन के लिए समर्पित कर दीजिऐ। बचपन माँ को दिया, जवानी पत्नी को दी और बुढ़ापा पोते-पोतियों को दे देंगे तो सोचिए अपनी सद्गति की व्यवस्था कब करेंगे। आसक्ति की जड़ों को थोड़ा ढीला कीजिये। घर के बेटे और बहुओं को सलाह दूंगा कि अगर घर में कोई वृद्ध हैं तो उन्हें भार मानने की बजाय भाग्य मानिऐ। याद रखें, बूढ़ा पेड़ फल नहीं देता, पर छाया तो देता ही हैं। अपने माता-पिता को भाग्य भरोसे मत छोड़िए। उनके बुढ़ापे को सुखमय बनाने की कोशिश कीजिए। जब उन्होंने हमें प्रेम से पाला तो हम उन्हें विवशता में क्यों पाल रहे हैं। उनकी दुआएँ लीजिए और आने वाली पीढ़ी को संस्कार दीजिए। घर के बुढ़े लोंगों की सेवा करना मुश्किल हैं आप पहले अपने घर की आग बुझाइए फिर औरों के घर पर पानी छिड़किए, इसी में भलाई हैं। बुढ़ापे को बेकार मत समझिए। इसे सार्थक दिशा दीजिए। तन में बुढ़ापा भले ही आ जाए, पर मन में इसे मत आने दीजिए। आप जब 21 के हुए थे तब आपने शादी की तैयारी की थी, अब अगर आप 51 के हो गए हैं तो शान्ति की तैयारी करना शुरू कर दीजिए। सुखी बुढ़ापे का एक ही मन्त्र हैं – दादा बन जाओ तो दादागिरी छोड़ दो और परदादा बन जाओ तो दुनियादारी करना छोड़ दो। अगर आप जवान हैं तो गुस्से को मन्द रखो, नही तो केरियर बेकार हो जाएगा और बूढ़े हैं तो गुस्से को बंद रखो नहीं तो बुढ़ापा बिगड़ जाएगा। बुढ़ापे को स्वस्थ, सक्रिय और सुरक्षित रखिए। स्वस्थ बुढ़ापे के लिए खानपान को सात्त्विक और संयमित कीजिए, सक्रिय बुढ़ापे के लिए घर के छोटे-मोटे काम करते रहिए और सुरक्षित बुढ़ापे के लिए सारा धन बेटों में बाँटने के बजाय एक हिस्सा खुद व खुद की पत्नी के नाम भी रखिए। दवाओं पर ज्यादा भरोसा मत कीजिए। भोजन में हल्दी, मैथी और अजवायन का उचित मात्रा में सेवन करते रहिए, हल्के-फुल्के व्यायाम अवश्य कीजिए अथवा आधा घण्टा टहल लीजिए। घरवालों पर हम भार न लगे और शरीर भी भारी न लगे इसलिए कुछ-न-कुछ करते रहिए। समय-समय पर स्वास्थ्य की जाँच भी करवा लीजिए ताकि कोई बड़ी बीमारी हम पर अचानक हमला न कर बैठे और पचास की उम्र में ही शेष बुढ़ापे की आर्थिक व्यवस्था सुदृढ़ कर लीजिए ताकि बच्चों के सामने हाथ फैलाने की नौबत न आए। घर में ज्यादा दखलंदाजी न करे क्योंकि बार-बार की गई टोकाटोकी बेटे-बहुओं को अलग घर बसाने के लिए मजबूर कर देगी। कमल के फूल की तरह घर में रहते हुए भी अनासक्त रहिए, थोड़ा समय प्रभु भक्ति, सत्संग, स्वाध्याय और ध्यान में बिताइये। हो सके तो साल में कम से कम एक बार संबोधि सक्रिय योग शिविर में अवश्य भाग लीजिए, इससे आपको मिलेगी जीवन की नई ऊर्जा, नया विश्वास और अद्भुत आनन्द। एक बनेंगें नेक बनेंगे, प्यार बढ़ाने आये हैं । तपोभूमि मथुरा के नारे , तुम्हें सुनाने आये हैं॥ हम सुधरेंगे युग बदलेगा, यही बताने आये हैं । ऊँच – नीच और जाति-पाँति का, भेद मिटाने आये हैं॥ बुढ़ापा उम्र के कैनवास पर रची गयी एक रचना की तरह है, जहाँ लकीरें आड़ी-तिरछी भले हैं लेकिन सिलवटों की गहराई में अनगिनत कहानियां और रहस्य तथा अनुभव छिपे हैं सीखना क्यों चाहिए ‘ताकि हम रूके न रह सकें’ हम चलते रहें , तो जीवन आसान होगा हमारा जीवन महत्वपूर्ण है’। आग को छूओगे नहीं तो पता कैसे चलेगा। अभ्यास जरूरी है। बिना जाने जीवन जिया नहीं जा सकता। यह सच है और जीवन का सच मृत्यु तक ही है, बाद का किसे पता है कि क्या है फिर क्यों हम बुढ़ापे से बचने की बात करते हैं जबकि हम अच्छी तरह जानते हैं कि हमारा भी बुढ़ापा मुस्कुराता हुआ इंतजार कर रहा है।एक कविता की आखिरी पंक्ति है- अगर सरकती नहीं टांगे, तो इसमें बुराई क्या है, यही बुढ़ापा है, यही सच्चाई है। गानों में बुढ़ापे का जिक्र किसी उपहास की तरह आता है। क्या करूं राम, मुङो बुड्ढा मिल गया। कुछ दिल वाले दिलदार मिले कुछ मस्ती वाले यार मिले कुछ बिना कहे आते जाते घर बार लुटाते, यार मिले ! बचाया गया हर पैसा, कमाए गए पैसे के बराबर है. वादे कर्ज़ के समान होते हैं जिन्हें कभी न कभी चुकाना होता है 8. जब आप विकल्पों पर विचार करते हैं तो बुढ़ापा भी इतना बुरा नहीं लगता I ज्ञान ऐसा ख़ज़ाना होता है जो अपने स्वामी के साथ हमेशा रहता है, जीवन में एक अवसर, अक्सर आता है, इसलिए तैयार रहें, बूढ़ों के पास उन चीज़ों की स्मृतियां होती हैं, जिज्ञासा को जीवित रखा जाना चाहिए. जागेगा इन्सान जमाना देखेगा । नवयुग का निर्माण जमाना देखेगा॥ जीवन के किसी मोड पर जब इन्सान का सामना दुःख से होता है तो वह लगभग विचार शुन्य हो जाता है। दुख से घबराने वाले और दुख में ढूब जाने वाले हम सतही चीज़ों पर ही विचार करते रह जाते हैं। कुछ अति संवेदनशील लोगों के लिए दुख एक टानिक का काम भी करता है और यह भी सच है कि दुःख का वातावरण कला में पैनापन ले आता है "आँसू वास्तव में मोती हैं" पीडा एक सार्वभौमिक प्रेरक तत्व है, जब हम पीडा में उलझे होते हैं तो इससे बाहर आने के उपाय खोजनें लगते हैं और इसके उबरने के लिये अपनी गतिविधियाँ बढा देते हैं यह ठीक ऐसा ही है जैसे दलदल में फसें होनें पर उस से बाहर निकलनें के लिये हाथ-पाँव मारना। हमें अपनी कार्यक्षमता पर भरोसा होना चाहिए और अपने लोगों पर भी विश्वास करना चाहिए। लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जीवन में जो भी घट रहा होता है, उसमें हमसे ऊपर एक परम शक्ति की बड़ी भूमिका रहती है। दुनिया की तमाम दौलत -रिश्ते-ऐशो-आराम-एक बुजुर्ग माँ-बाप कमी को पूरा नहीं कर सकते माँ ना होना शायद सबसे बड़ी बदकिस्मती हो लेकिन मेरी नज़र में सबसे बदक़िस्मत वो है जो जवानी की देहलीज़ पर क़दम रखते ही - गृहस्थ जीवन में प्रवेश करते ही - 'पति' और 'बाप' बनते ही अपनी माँ-बाप से अलग हो दुनिया का सबसे ज़ालिम बेटा बन जाता है. आज बुजुर्ग माँ-बाप से अलग रहना या उन्हें अलग कर देना महानगरों में एक फैशन बन गया है और बाकि जगहों पर एक 'आदत' - ताकि बूढ़े माँ -बाप को वहां धकेल कर ये तथाकथिक हाई-फाई, उच्च-ख़ानदानी ऊंचे-ऊंचे ओहदों पर बैठे इंसान स्वछन्द, अय्याश जीवन व्यतीत कर सकें. वही माँ बाप जो हमें एक ख़ास मुक़ाम तक पहुंचाते हैं उन्हें हम उनके आखरी दिनों में एक तन्हा मुक़ाम पर छोड़ आते हैं - धिक्कार है ऐसी औलाद पर, बेटों पर - बहुओं पर. एक नज़्म ऐसे बेटों पर लानत स्वरुप आप तक रहा हूँ:- मैं बेटी हूँ, मैं अपनी माँ को अपने साथ ले आई उसे तन्हा, सिसकता छोड़ जब आया मेरा भाई मैं बेटी हूँ, मैं अपनी माँ को अपने साथ ले आई है बस अपनी ही बीवी और बच्चों से उसे मतलब उसी को भूल बैठा है, जो दुनिया में उसे लाई जो जैसा बीज बोता है, वो फल वैसा ही पाता है बुढ़ापा तुझपे भी आएगा, क्यूँ भूला ये सच्चाई जो मन्नत मांगते थे बस हमें बेटा हो, बेटा हो उन्हें बेटी की क़ीमत अब बुढ़ापे में समझ आई वो बूढ़ी हो गयी, तो अब उसे, इक बोझ लगती है जवानी, अपने बच्चों के लिए, जिसने थी झुलसाई वो कुत्ता पाल सकता है, मगर माँ बोझ लगती है उसे कुत्ते ने क्या कुछ भी, वफ़ादारी ना सिखलाई तेरा बेटा जो देखेगा, वही तो वो भी सीखेगा तू अपने वास्ते, हाथों से अपने, खोद ना खाई बुजुर्गों की जीवन-संध्या पूरी गरिमा और बिना किसी अभाव के बीते- यह हर सभ्य समाज का नैतिक दायित्व है। भारत में बुजुर्गों के साथ सम्मान का बरताव करने की गौरवशाली परंपरा रही है लेकिन ज्यों-ज्यों भारत आगे बढ़ रहा है, यहां के बुजुर्गों की दयनीय दशा गहरे शर्म और चिन्ता का विषय बनते जा रही है , मानों इनके लिए किसी के पास समय ही नहीं है। अपने घर-परिवार के सदस्यों के हाथो त्यक्त बुजुर्ग बहुधा एकाकी जीवन बिताने को बाध्य हैं, वह भी एक ऐसे वक्त में जब उन्हें साहचर्य और देखभाल की सबसे ज्यादा जरुरत है।. भारत के बुजुर्गों के बारे में कुछ कड़वे तथ्य - भुखमरी का शिकार होने वाले लोगों में सर्वाधिक संख्या बुजुर्गों की है ।- तकरीबन 60 फीसदी बुजुर्गों को अपनी जीविका चलाने के लिए काम करना पड़ रहा है । देश का बदलता हुआ सामाजिक-आर्थिक परिवेश बुजुर्गों की दशा को और ज्यादा दयनीय बना रहा है। आज के समय में कामगार तबके में पलायन एक नियम सा बन गया है। परिवार के युवा सदस्य काम के लिए घर छोड़कर निकल जाते हैं और बुजुर्ग बिना किसी आर्थिक या फिर देखभाल जैसी अन्य सहायता के घर में निराश्रय रह जाते हैं बेहतर सोच ही बेहतर जिन्दगी का रास्ता है। मनुष्य के विचार ही उसकी जिन्दगी के स्तर को मापने का सबसे उपयुक्त पैमाना हैं। लोग घटिया जीवन इसलिए नहीं जीते कि उनके पास जीवन जीने के लिए बेहतर साधन नहीं होते बल्कि वह ऐसा जीवन इसलिए जीते हैं कि उनकी सोच निम्न स्तर की होती है। दुख की बात यह है कि वे यह बात समझ ही नहीं पाते हैं और बेहतरी की तलाश में अपनी सोच और विचारों को तुच्छ बनाते चले जाते हैं। “बेहतर जिन्दगी का रास्ता एक बेहतर सोच से होकर गुजरता है।” छोटी सोच से भला बड़ी जिन्दगी की उम्मीद कैसे की जा सकती है। इस बात को आप स्वयं आजमा सकते हैं। आप इसी समय अपने दिमाग में एक घटिया विचार ले आइए, फिर देखिए कि उसका क्या असर आपकी जिन्दगी पर पड़ता है और अगर आप अच्छा विचार रखते हैं, तब देखिए कि इसका क्या प्रभाव होता है। जीवन को अच्छा बनाने की कोशिश में लगे लोग यदि अपने विचारों पर गौर करें तो उन्हें इसका समाधान मिल जाएगा लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस तरफ ध्यान नहीं दिया जाता है। बेहतरी की तलाश में हम अपनी सोच को और घटिया बना लेते हैं। इससे भले ही हम सांसारिक तौर पर तमाम भौतिक संसाधन हासिल कर लेते हैं लेकिन मन और आत्मा से और दुखी और निराश होते चले जाते हैं। ऐसे लोग फिर ईश्वर, भाग्य और परिस्थितियों को दोष देते हैं लेकिन अपनी सोच को नहीं बदल पाते हम इस पल में कैसा महसूस कर रहें है , वो किसी भी दूसरी चीज़ से ज्यादा जरुरी है . क्योंकि हमारा वर्तमान ही हमारी आगे की जिन्दगी का रूप तय करता है . भावनाओं के बिना सिर्फ सोंच और शब्द से हम अपनी जिन्दगी नहीं बदल सकते है हम जितना बेहतर या ख़ुशी महसूश करते है, उतना ही ज्यादा प्रेम देते है और बदले में वो ही लौट कर हमारे पास आता है.गलत सोंच में प्रेम का अंश नहीं होता. इसको हम छोटी सी बात से समझ सकते है . प्रेम - घृणा, कृतज्ञता - ऊब , आनंद - चिंता , उत्साह - क्रोधरोमांच - क्रोधजोश -हताशा ,ग्लानिआशा -भय, आलोचनासंतुष्टि- निराशा, घृणा यदि ज्यादातर समय हम ठीक महसूश करते है, तो हम इस ठीक सोंच को ही अपने अनुकूल मान सकते है. "प्रेम का पैमाना बगैर पैमाने के प्रेम देना है . अगर हम पैसे की बात करें तो उपयुक्त धन न होने के कारण हम धन के बारे में सोचते समय बुरा महसूस करते है तो हमें आमदनी के रास्ते में असफलता ही मिलेगी. हर चीज़ का सम्बन्ध हमारी सोंच से है . पैदा हुए और चल पड़े, ये दुनिया वाले भी बड़े अजीब हैं, थाम कर हाथ जिंदगी का, बढ़ रहे मगर मौत के करीब हैं न कर भरोसा जिंदगी का, बिक जाएगा तू भी इक दिन है दौलत बेशक़ पास तेरे, पर जिंदगी हमेशा से गरीब है जिंदगी के इस तालाब में, कांटा है मौत का हरदम कौन मछली कब फंसे, अपना अपना सबका नसीब है पाक-साफ था बचपन, पर पाप से बच पाए कम ही यहाँ इसी जहाँ में मिली सजा, ढो रहे अपना ही अब सलीब हैं साथ न जाएगा किसी के कोई, मंजिल बेशक सब की एक जिंदगी के इस सफर में, न कोई दोस्त है न कोई रक़ीब है / अपना अपना सबका नसीब है जिंदगी नेक्स्ट महज एक मैगजीन ही नहीं, बल्कि एक कोशिश है उन सवालो के जवाब तलाशने की, जो पल पल हमारे दिलोदिमाग में भविष्य को लेकर घुमड़ते रहते हैं. भावी जीवन के पूर्वानुमान का अभ्यास एक कला भी है और विज्ञान भी. जो अतीत के अनुभवों और वर्तमान परिस्थितियों पर आधारित है. हर कला या हर विज्ञान की तरह इसकी भी अपनी कुछ सीमाएं हैं,लेकिन इससे इसकी उपयोगिता,जरुरत और महत्व कम नहीं हो जाता. भविष्य जो अन्जान है, आशाओं,आशंकाओं,चुनौतियों से भरा है...उसकी आधारशिला उस आज पर ही रखी होती है,जिसे हम वर्तमान में जी रहे हैं. भविष्यविज्ञान अथवा फ्युचरोलोजी इसी आधारशिला की तलाश और स्थापना में मदद करती है...